डर लगता है इंसानों से, अपनों से, अनजानों से।
कोशिश की डर को ठुकराने की,
सर उठा कर आगे निकल जाने की।
पर हर बार ये सामने आ खड़ा होता है।
चेहरा अलग पर एहसास वही होता है।
नाउम्मीदी और खालीपन, सब धुंधला जाता है।
ज़िंदगी के इस मेले मे क्या हमसफ़र ज़रूरी है?
क्यों करें भरोसा ? क्यों बांधे उम्मीदें ?
क्यों न ज़िंदगी आसान करें ?
बस खुद पर ही विश्वास करें।
वो कहते हैं के अपने हैं।
पर उनके बाद क्यों अपने लिए कुछ बचता ही नहीं ?
यूँ लगता है के ज़िंदगी उनका दिया उधार है,
जो बस चुकाते जाना है।
ऐसे अपनों से अनजाने ही सही।
हम ढूंढ लेंगे अपनी ज़मीन।
पर यहाँ भी एक दीवार है,
वो उस तरफ और हम इस पार हैं।
बाहर से अंदर की तरफ झांकते हुए
अपने अलग होने का एहसास होता है।
जो हमने कही नहीं वो समझेंगे कैसे?
यूं ख़ामोशी में कहीं ज़िंदगी न बीत जाये।
बस इसी कश्मकश में चले जा रहे हैं
के अकेले चलें या बन जाएं किसी का हिस्सा ?
कहीं अपने आप को भूल तो नहीं जायेंगे ?
इस बात से भी डर लगता है।
कोशिश की डर को ठुकराने की,
सर उठा कर आगे निकल जाने की।
पर हर बार ये सामने आ खड़ा होता है।
चेहरा अलग पर एहसास वही होता है।
नाउम्मीदी और खालीपन, सब धुंधला जाता है।
ज़िंदगी के इस मेले मे क्या हमसफ़र ज़रूरी है?
क्यों करें भरोसा ? क्यों बांधे उम्मीदें ?
क्यों न ज़िंदगी आसान करें ?
बस खुद पर ही विश्वास करें।
वो कहते हैं के अपने हैं।
पर उनके बाद क्यों अपने लिए कुछ बचता ही नहीं ?
यूँ लगता है के ज़िंदगी उनका दिया उधार है,
जो बस चुकाते जाना है।
ऐसे अपनों से अनजाने ही सही।
हम ढूंढ लेंगे अपनी ज़मीन।
पर यहाँ भी एक दीवार है,
वो उस तरफ और हम इस पार हैं।
बाहर से अंदर की तरफ झांकते हुए
अपने अलग होने का एहसास होता है।
जो हमने कही नहीं वो समझेंगे कैसे?
यूं ख़ामोशी में कहीं ज़िंदगी न बीत जाये।
बस इसी कश्मकश में चले जा रहे हैं
के अकेले चलें या बन जाएं किसी का हिस्सा ?
कहीं अपने आप को भूल तो नहीं जायेंगे ?
इस बात से भी डर लगता है।
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